भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति
भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति
अन्य सम्बन्धित शीर्षक नारी जागरण,
• नारी-उत्थान, विकासशील भारत एवं नारी
• भारतीय समाज में नारी की स्थिति स्वातन्त्र्योत्तर भारत में महिला
• आधुनिक नारी की समस्याएँ
• आधुनिक भारत में नारी का स्थान
[रूपरेखा -
(1) प्राचीनकाल में नारी,
(2) नारी की स्थिति में परिवर्तन,
(3) समाज के छद्मपाश में बँधी नारी,
(4) भारतीय नारी और समाज सुधारक,
(5) भारतीय नारी: बलिदान की प्रतिमा,
(7) भारतीय नारी के दृष्टिकोण एवं जीवन-शैली में अपेक्षित परिवर्तन,
(8) उपसंहार । ]
प्राचीनकाल में नारी - संसार एक रंगमंच है, जहाँ स्त्री एवं पुरुष दोनों को ही अभिनय करना पड़ता है। देश के निर्माण में पुरुषों के साथ स्त्रियों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भारतीय समाज में नारियों की पूजा विभिन्न रूपों ने होती रही है। प्राचीन भारत के इतिहास के पृष्ठ भारतीय महिलाओं की गौरव गाथा से भरे हुए हैं। 'मनुस्मृति' में कहा गया है — "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ", अर्थात् जहाँ नारी की पूजा की जाती है, वहाँ देवता निवास करते हैं।
अतीतकाल में नारियों को पुरुष के समान अधिकार प्राप्त थे, परिवार में उनका स्थान प्रतिष्ठापूर्ण था, गृहस्थी का कोई भी कार्य उनकी सहमति के बिना नहीं हो सकता था। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब रामचन्द्रजी ने अश्वमेध यज्ञ किया तो उन्होंने सीताजी के वनवास के कारण उनकी स्वर्ण प्रतिमा रखकर यज्ञ की पूर्ति की थी।
आवश्यकता होने पर स्त्रियाँ पुरुषों के साथ रणक्षेत्र में भी जाती थीं। देवासुर संग्राम की उस घटना को कौन भूल सकता है, जिसमें कैकेयी ने अपने अद्वितीय कौशल से महाराज दशरथ को भी विस्मित कर दिया था। प्राचीनकाल में नारियों को अपनी योग्यता के अनुसार पति चुनने का अधिकार था। कैकेयी, शकुन्तला, सीता, अनसूया, दमयन्ती, सावित्री आदि प्रमुख स्त्रियाँ इसके मुख्य उदाहरण हैं।
नारी की स्थिति में परिवर्तन समय के परिवर्तन के साथ-साथ स्त्रियों की स्थिति में भी परिवर्तन होता गया। प्रेम, बलिदान तथा सर्वस्व समर्पण ही स्त्रियों के लिए विष बन गया। समाज को घृणित विचारधारा ने उसका क्षेत्र केवल घर की चहारदीवारी तक ही सीमित कर दिया। आदर्शवादी एवं समाज सुधारक गोस्वामी तुलसीदास ने नारी की इस स्थिति का चित्रण इन शब्दों में किया है-
मुगलकाल में परदा प्रथा आरम्भ हुई और स्त्री को शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया।
परदे की आड़ लेकर उसे घर की चहारदीवारी में कैद कर दिया गया। तभी से नारी विवशता की बेड़ियों में जकड़ी स्वाधीनता की बाट जोह रही है। समाज के छद्मपाश में बंधी नारी–नारी ने प्रेम के वशीभूत होकर स्वयं को पुरुष के चरणों में समर्पित कर दिया; किन्तु निर्दयी पुरुष ने उसे बन्धनों में जकड़ लिया। वही नारी, जिसने अपने पति की पराजय से व्य होकर के गहन गर्न में डुबकियाँ लगाने तथा सामाजिक प्रताड़नाओं को दूर पशु के सो सन्न करने के लिए विवरा रही। छोटी अवस्था में बेमेल विवाह तथा कभी-कभी भाग्य की विडम्बना के कारण विधवा होकर जीवनपर्यन्त आँसू बहाते रहना पड़ता था। स्त्रियों का जीवन पुरुषों की दया पर निर्भर रहता था। क्योंकि उत्तराधिकार आदि से उसे वंचित रखा गया था। आर्थिक एवं सामाजिक कुरीतियों ने पराधीन भारत में नारियों को इतना दीन-हीन बना दिया था कि ये अपने अस्तित्व को ही भूल गई थीं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने नारी की इसी शोचनीय दशा का वर्णन निम्नलिखित पंक्तियों में किया है
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी। आँचल में है दूध और आँखों में पानी ।। भारतीय नारी और समाज-सुधारक- धीरे-धीरे भारतीय विचारकों एवं नेताओं का ध्यान स्त्री-दशा में सुधार
की ओर आकर्षित हुआ। राजा राममोहनराय ने सती-प्रथा (पति की मृत्यु होने पर उसके साथ पत्नी को सती होने के लिए विवश करना) का अन्त कराने का सफल प्रयास किया। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने पुरुषों की भाँति महिलाओं को भी समान अधिकार दिए जाने पर बल दिया। गांधीजी सहित अन्य अनेक नेताओं ने महिला उत्थान के लिए जीवनपर्यन्त कार्य किए। देश की स्वतन्त्रता के साथ-साथ नारी-वर्ग में भी चेतना का विकास हुआ। वह आज घर तक सीमित न होकर पुरुषों के समान कार्य-क्षेत्र में पदार्पण कर रही है। भारतीय संविधान में भी यह घोषणा की गई है कि "राज्य धर्म, जाति, सम्प्रदाय, लिंग आदि के आधार पर किसी भी नागरिक में विभेद नहीं करेगा।" 'शारदा एक्ट' एवं 'उत्तराधिकार अधिनियम' द्वारा स्त्रियों की दशा को सुधारने का प्रयास किया गया। आज उन्हें पुरुषों के समान आर्थिक स्वतन्त्रता प्रदान की जा रही है। पिता की सम्पत्ति में पुत्रों की भाँति इनके हिस्से की भी कानूनी व्यवस्था की गई है। भारतीय नारी: बलिदान की प्रतिमा भारतीय नारी जीवन की कटुता और विषमताओं का विष पीकर भी कर्त्तव्य और त्याग का सन्देश देती रही है। रानी लक्ष्मीबाई ने अपना बलिदान देकर देश की रक्षा के लिए अंग्रेजों से युद्ध किया। गांधीजी को चरित्र-निर्माण की मूल प्रेरणा देनेवाली उनकी माता पुतलीबाई ही थीं। श्रीमती सरोजिनी नायडू, विजयलक्ष्मी पण्डित, इन्दिरा गांधी, राजकुमारी अमृतकौर, डॉक्टर सुशीला नय्यर आदि के रूप में हमें आज के प्रगतिशील नारी समाज के दर्शन होते हैं। इन नारियों ने स्वयं राष्ट्र-निर्माण एवं जन-जागरण में भाग लेकर नारी जाति का पथ प्रदर्शन किया है। स्वतन्त्र भारत में महिलाओं की प्रगति के लिए हमारी सरकार पर्याप्त ध्यान दे रही है। यद्यपि आज की स्त्रियों
घर के सीमित कार्य-क्षेत्र को छोड़कर समाज सेवा की ओर बढ़ रही हैं तथा उनके हृदय में सामाजिक चेतना उत्पन्न
हो रही है; तथापि भारतीय नारी के सामूहिक जागरण के मार्ग में अभी भी अनेक अवरोध है। इन अवरोधों को दूर
करके ही भारतीय नारी अपना उत्थान कर सकती है। भारतीय नारी के दृष्टिकोण एवं जीवन शैली में अपेक्षित परिवर्तन - भारतीय सभ्यता का मूल मन्त्र 'सादा जीवन उच्च विचार' था; परन्तु आज की नारियाँ इस आदर्श से बहुत दूर हैं। आज के संक्रान्ति काल में, जब देश के हजारों व्यक्तियों के पास न खाने को अन्न है और न पहनने के लिए वस्त्र, वे राष्ट्र की अमूल्य सम्पत्ति का व्यय अपने सौन्दर्य-प्रसाधनों हेतु कर रही हैं। पुरुषों को मोहित करने के लिए अपने-आपको सजाने एवं संवारने की पुरातन प्रवृत्ति को वे आज भी नहीं छोड़ सकी हैं। नारी समस्याओं की प्रसिद्ध लेखिका श्रीमती प्रेमकुमारी 'दिवाकर' का कथन है कि "आधुनिक नारी ने निःसन्देह बहुत कुछ प्राप्त किया है, पर सबकुछ पाकर भी उसके भीतर का परम्परा से चला आया हुआ कुसंस्कार नहीं बदल रहा है। वह चाहती है कि रंगीनियों से सज जाए और पुरुष उसे रंगीन खिलौना समझकर उससे खेले। वह अभी भी अपने-आपको रंग-बिरंगी तितली बनाए रखना चाहती है। कहने को आवश्यकता नहीं कि जब तक उसकी यह आन्तरिक दुर्बलता दूर नहीं होगी, तब तक उसके मानस का नव-संस्कार न होगा। जब तक उसका भीतरी व्यक्तित्व न बदलेगा, तब तक नारीत्व की पराधीनता एवं दासता के विष-वृक्ष की जड़ पर
कुठाराघात न हो सकेगा।" इसके अतिरिक्त स्त्रियों को जीवनपर्यन्त दूसरों पर भार बने रहना पड़ता है। अशिक्षा, अज्ञानता को समस्या, आभूषणप्रियता, बाल-विवाह एवं येमेल विवाह आदि अनेक ऐसी विकट समस्याएँ है, जिनके द्वारा नारी- प्रगति में अवरोध उत्पन्न हो रहा है।
Comments