पंचायती राज ( panchayt Raj )

 पंचायती राज


अन्य सम्बन्धित शीर्षक पंचायती राज व्यवस्था के लाभ



रूपरेखा 

1) प्रस्तावना, 

1) भारत में पंचायती राज का महत्व  

3) पंचायती राज व्यवस्था का वर्तमान स्वरूप —

 (i) ग्राम सभा,

(ii) ग्राम पंचायत, 

(iii) न्याय पंचायत 

4) पंचायतों के कार्य- 

(i) लोक-सेवा सम्बन्धी 

(ii) शासन सम्बन्धी कार्य, 

() न्याय सम्बन्धी कार्य, 

5) पंचायतों की आय के साधन, 

6) पंचायतों की असफलता कारण, 

7) उपसंहार।

 प्रस्तावना – स्वतन्त्रताप्राप्ति के पश्चात् सता के विकेन्द्रीकरण के लिए भारत के विभिन्न राज्यों में गाँवों के स्थानीय स्वशासन को त्रिस्तरीय व्यवस्था की गई। इसका प्रारम्भ सन् १९५९ में बलवन्त राय मेहता समिति के प्रतिवेद कार्य के आधार पर किया गया था। इस सन्दर्भ में संविधान अधिनियम १२ द्वारा इन्हें संवैधानिक स्थिति प्रदान की गई है।

व्यवस्था के अन्तर्गत गाँवों और जिलो के स्थानीय स्वशासन की प्राचीन एवं परम्परागत संस्थाओं को पुनः संगठित किया गया। पंचायतों का कार्यकाल पाँच वर्ष तय किया गया। पंचायती राज का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण स्वशासन को संस्थाओं को नियोजन एवं विकास की प्रक्रियाओं एवं कार्यक्रमों में सक्रिय रूप से भागीदार बनाना है।

भारत में पंचायती राज का महत्व - भारतवर्ष की अधिकांश जनता गाँवों में निवास करती है। ग्रामीण भारत के विकास के लिए और उसकी सत्ता में पूर्ण भागीदारी के लिए पंचायती राज ही एकमात्र उपयुक्त योजना है। पंचायती राज व्यवस्था के द्वारा राजनैतिक तथा आर्थिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण किया गया और देश में एक-सी स्थानीय संस्था के निर्माण से राष्ट्रीय एकता भी बढ़ रही है। पंचायती राज व्यवस्था के कारण ग्रामीण राजनैतिक और आर्थिक दोनों ह महत्वपूर्ण क्षेत्रों में जागरूक हुए है। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है। पंचायती राज संस्थाएँ ग्रामीणजनो को लोकतन्त्र में भाग लेने के लिए, उत्तरदायित्व को समझाने और उन्हें स्वराज के महत्त्व का ज्ञान कराती है।


पंचायती राज व्यवस्था का वर्तमान स्वरूप – पंचायती राज व्यवस्था का प्रारम्भ १९५९ ई० में बलवन्तराय मेहता समिति के प्रतिवेदन (१९५७) के आधार पर किया गया था। इस सन्दर्भ में संविधान (७२वाँ तथा ७३ संशोधन) अधिनियम द्वारा इन्हें संवैधानिक स्थिति प्रदान की गई। यह भारत के विभिन्न राज्यों में गाँवों के स्थानीय स्वशासन की त्रिस्तरीय व्यवस्था है। परन्तु कुछ राज्यों में इस त्रिस्तरीय व्यवस्था के नाम पर केवल द्विस्तरीय व्यवस्था पाई जाती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने सन् १९४७ ई० में संयुक्त प्रान्तीय पंचायत राज कानून बनाकर पंचायतों के संगठन सम्बन्धी सराहनीय कार्य किए। सन् १९४७ ई० के इस कानून के अनुसार एक ग्राम पंचायत के स्थान पर ग्राम सभा, ग्राम पंचायत और न्याय पंचायत की व्यवस्था की गई। इन व्यवस्थाओं का स्वरूप इस प्रकार है-

 (i) ग्राम सभा - जिस ग्राम की जनसंख्या २०० अथवा इससे अधिक हो, सरकार उसे ग्राम सभा घोषित करती है। यदि किसी गाँव की जनसंख्या इससे कम हो तो उन्हें पास को गाँव सभा से जोड़ दिया जाता है। गाँव सभा के सदस्यों का किसी प्रकार का निर्वाचन नहीं होता, वरन् गाँव का प्रत्येक गाँववासी, जो १८ वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो, ग्रामसभा का सदस्य होता है। इसका एक सभापति होता है, जिसका चुनाव पाँच वर्ष के लिए होता है तथा उपसभापति का चुनाव १ वर्ष के लिए होता है। 

(ii) ग्राम पंचायत — प्रत्येक ग्रामसभा अपने सदस्यों में से कार्यकारिणी चुनती है। यह कार्यकारिणी ही ग्राम पंचायत कहलाती है। यह ग्राम सभा द्वारा स्वीकृत योजनाओं को लागू करने एवं गाँव की समस्या को हल करने का कार्य करती है। सभापति एवं उपसभापति को छोड़कर गाँव की जनसंख्या के आधार पर इसके सदस्यों की संख्या ७ से १५ होती है। ग्राम पंचायत का संगठन ५ वर्ष के लिए होता है, किन्तु विशेष परिस्थितियों में सरकार इसकी अवधि कम या अधिक भी कर सकती है।


(iii) न्याय पंचायत - न्याय पंचायत पंचायती राज्य की न्यायपालिका होती है। इसका कार्य गाँववासियों के छोटे-छोटे झगड़ों का निर्णय करना होता है। सामान्यतया तीन से पाँच ग्रामों के लिए एक न्याय पंचायत होती है। न्याय पंचायत के पंच की आयु ३० वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए। न्याय पंचायत के सदस्यों द्वारा बहुमत से एक सरपंच का चुनाव किया जाता है। पंचायत के सदस्यों का चुनाव अलग से नहीं होता। नए कानून के अनुसार ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव करते समय प्रत्येक ग्राम सभा ग्राम पंचायत के सदस्यों की संख्या के अतिरिक्त अधिक-से-अधिक ५ सदस्य उसी समय चुनती है। सरकार इन्हीं सदस्यों में से अधिकतम योग्यता वाले ५ सदस्यों को पंच चुन लेती है। न्याय पंचायत का संगठन पाँच वर्ष के लिए होता है। 

पंचायतों के कार्य — भारत में ग्राम पंचायतों की व्यवस्था बहुत पहले से रही है और आधुनिक युग में भी

पंचायते राष्ट्रीय जीवन का आधार है। ग्रामों के विकास के लिए पंचायतों के कार्यों का विशेष योगदान रहा है। पंचायतों

के माध्यम से गाँवों में लोक-सेवा, शासन सम्बन्धी तथा न्याय सम्बन्धी कार्य सम्पन्न किए जाते हैं, 


जिनका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है-


(i) लोक-सेवा सम्बन्धी कार्य पंचायतों का मुख्य कार्य अपने क्षेत्र की सड़कों को अच्छी स्थिति में रखना, उनकी मरम्मत करवाना, पुलों का निर्माण कराना, प्रकाश का प्रबन्ध करना, सफाई की व्यवस्था कराना, प्रारम्भिक शिक्षा का प्रबन्ध करना, पशुओं की नहरन सुधारना तथा चिकित्सालय खुलवाना आदि लोक-सेवा सम्बन्धी कार्य करना है।


(ii) शासन सम्बन्धी कार्य पंचायतो का यह मुख्य प्रशासनिक कार्य है कि ये अपने क्षेत्र में अपराध की पूर्ण रोकथाम करें। इसके अतिरिक्त हवलदार, पटवारी, सन्तरी, जंगलात के व्यक्ति, चपरासी इत्यादि के विरुद्ध यदि पंचायत की कोई शिकायत हो तो यह उनकी रिपोर्ट सक्षम अधिकारियों को पहुंचा सकती है। 

(iii) न्याय सम्बन्धी कार्य ऐसी पंचायतें, जिन्हें साधारण अधिकार प्राप्त हो, ये उन फौजदारी मुकदमों को सुनती है, जिनमें गाली-गलौच से झगड़ा उत्पन्न हो जाए या सार्वजनिक रास्तों में कोई रुकावट पैदा हो गई हो। इसके साथ ही संक्रामक रोगों के प्रसार, दूसरे के माल पर कब्जा कर लेना, थोड़ी रकम की चोरी, मारपीट आदि कई मुकदमों को सुन सकती है तथा ऐसे किसी अपराधी को चेतावनी देकर छोड़ सकती है, जिसने पहली बार अपराध किया हो। पंचायतों की आय के साधन- पंचायतों को कुछ आय के साधन भी प्राप्त है जैसे— 

पंचायतों की सीमा में कूड़ा-करकट, गोबर, गन्दगी इत्यादि फेंकना, मछली पालन और बेचना, पंचायत क्षेत्र में पशुओं की रजिस्ट्रेशन फीस,मेलों से प्राप्त आय के अतिरिक्त सरकार को जो आय पंचायत क्षेत्र में भूमिकर के इकट्ठा करने से होती है; उसका दस प्रतिशत पंचायतों को मिलता है। पंचायतों की असफलता के कारण सन् १९५२ ई० में ग्राम पंचायते स्थापित की गई तथा उन्हें कुछ सीमित अधिकार दिए गए। बाद में पंचायती राज स्थापित किया गया, परन्तु इतने वर्ष बीतने के बाद भी पंचायती राज को उतनी सफलता नहीं मिलो, जितनी कि आशा की गई थी। 


पंचायती राज के पूर्ण रूप से सफल न होने के कुछ मुख्य कारण है— पंचायत के सदस्यों का शिक्षित न होना, जाति-धर्म के आधार पर गुटबन्दी, सरकार का अधिक नियन्त्रण, धन का अभाव, ग्राम सभा की बैठकों का नियमित न होना, पंचायत चुनावों का नियमित रूप से न होना तथा पंचायतों पर प्रभावशाली गुटों का कब्जा होना। इस सभी कारणों से आम गाँववासी ग्राम पंचायत से न्याय पाने की उम्मीद ही छोड़ बैठा है। पक्षपातपूर्ण एवं असंगत निर्णयों के कारण ग्राम पंचायतो से ग्रामवासी का विश्वास इतना हट गया है कि वह ग्राम पंचायत की शरण में जाने की अपेक्षा अदालतों के वर्षो चक्कर काटना अधिक पसन्द करता है।.

उपसंहार — पंचायती राज में अनेक कमियों के होते हुए भी इसके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। पंचायती राज व्यवस्था ने देश के राजनीतिकरण और आधुनिकीकरण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। पंचायतों के चुनाव ने ग्रामीणों में राजनैतिक चेतना जाग्रत की है और पंचायती राज व्यवस्था के कारण उनको राजनैतिक भागीदारी भी बढ़ी है। ग्राम पंचायतों को गाँवों में सुधार करने, सड़क बनाने, सिचाई की व्यवस्था करने, स्कूल तथा चिकित्सालयों पर नियन्त्रण रखने के व्यापक अधिकार दिए गए हैं। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि राजनैतिक दलों का भी ग्राम पंचायतो में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए तथा सरकार को भी पंचायत राज संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने तथा उनके दोषों को दूर करने में रुचि लेनी चाहिए।

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