इक्कीसवीं सदी का भारत

 इक्कीसवीं सदी का भारत

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इक्कीसवीं सदी में विकास के स्वप्न

 • इक्कीसवीं शताब्दी 

पिछले पचास वर्षो में भारत ने खाद्य उत्पादन, स्वास्थ्य, आधारभूत ढाँचा सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त की हैं। तमाम संसाधनों के बावजूद इक्कीसवी शताब्दी के इस प्रारम्भिक दशक में लोग गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। उन्हें गरीबी से मुक्त करने और स्वस्थ तथा साक्षर बनाने की आवश्यकता है। देश की एक अरब जनता भारत को समृद्ध व महाशक्ति बनाने के मेरे स्वप्न को जनआंदोलन का रूप देकर सफल बना सकती है। हमारी यह इक्कीसवीं सदी पूर्ण गरीबी उन्मूलन के लिए कृत संकल्प होनी चाहिए।

रूपरेखा – 

1 प्रस्तावना, 

2) परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम, 

3) परिवर्तनशील भारत, 

4) इक्कीसवीं सदी और भारत, 

5) इक्कीसवीं सदी और हमारी तैयारी, 

6) विकास की आशाएँ - 

(क) कृषि के क्षेत्र में, 

(ख) औद्योगिक क्षेत्र में, 

7) उपसंहार 


प्रस्तावना - 

लगभग 25 वर्ष पूर्व अंग्रेजी साहित्य के लेखक ने एक बहुत रोचक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था- -'इक्कीसवीं सदी की दुनिया'। इस लेख में यह बताया गया था कि इक्कीसवीं सदी में मानव समाज औद्योगिक विकास की अनेक मंजिले तय करते हुए उस जगह तक जा पहुँचेगा जहाँ आदमी शून्य होगा और मशीनें सर्वोत्तम। वह चांद तक पहुंचेगा और आकाश पर जगमग करते सितारों की खोज करेगाः किन्तु मशीनों के माध्यम से। यह वह समय होगा, जब आदमी की समस्त बौद्धिक शक्तियाँ मशीन के कलपुर्जी को समर्पित कर दी जाएँगी। विकास के अन्तिम चरण में मनुष्य स्वनिर्मित मशीनों का दास होकर रह जाएगा।

पचास वर्ष पूर्व प्रसिद्ध शायर इकबाल ने भी इस स्थिति को गम्भीरता से समझा था और तभी वे यह कहने पर विवश हुए थे- तुम्हारी तहजीब अपने खंजर से, आप ही खुदकशी करेगी।

अब हम इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में प्रवेश कर चुके हैं। पश्चिमी देशों ने तो आदमी के समान कार्य करने वाले रोबोट अभी से बना लिए हैं और वे एक सीमा तक उन पर निर्भर भी होते जा रहे हैं। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम-परिवर्तन प्रकृति का नियम है। प्रकृति प्रतिदिन अपना रूप बदलती रहती है। पेड़ों पर निकलनेवाले पत्ते वसन्त के आते-आते गिर जाते हैं, जिससे शाखाओं पर नई कोंपलें लहलहा उठे। मानव-स्वभाव भी परिवर्तनशील है, वह भी समय और वातावरण के अनुसार बदलता रहता है।

परिवर्तनशील भारत – अपनी सदियों पुरानी परम्परा और सांस्कृतिक विरासत को लिए हुए भी भारत निरन्तर परिवर्तन की विविध मंजिले तय कर रहा है। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद भारत ने विकास के अनेक सोपान चढ़े हैं।

निश्चय ही आज भारत वैसा नहीं है जैसा कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय था। अन्य विकासशील देशों की भाँति वह आज भी, भले ही मन्द गति से, परन्तु निरन्तर परिवर्तन की दिशा में बढ़ रहा है। जीवन के विविध क्षेत्रों में भारत ने अनेक विशिष्ट परिवर्तन किए हैं और परिवर्तन की यह प्रक्रिया निरन्तर चल रही है। यद्यपि मशीनीकरण के क्षेत्र में भारत पश्चिमी देशों की तुलना में अभी बहुत पीछे है, तथापि ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इक्कीसवीं सदी में भारत भी विकसित देशों की पंक्ति में खड़ा हो जाएगा। इक्कीसवीं सदी और भारत कल्पना में जब भी 21वीं सदी का भारत उभरता था तो उसके दो स्पष्ट छोर दिखाई देते थे। इनमें से एक आधुनिक और वैज्ञानिक विश्व से जुड़ा है तो दूसरा काठ के बने गाड़ी के दो पहियों के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ने को विवश है।

हमारे देश में अरबों रुपये के बजट पर आधारित पंचवर्षीय योजनाएं तैयार हो रही हैं। इनके माध्यम से भारत को आधुनिकीकरण की दिशा में बढ़ाने का पूरा प्रयास किया जा रहा है, किन्तु आधुनिकीकरण का लाभ देश के अधिसंख्यक वर्ग को मिल सके, ऐसी व्यवस्था हमने अभी तक नहीं की है। परिणामतः २१वीं सदी के किसी दशक में ऐसी स्थिति भी हो सकती है, जबकि भारत का एक बहुत छोटा वर्ग अति आधुनिक साधनों और सुविधाओं का भोग कर रहा होगा और एक बहुत बड़ा वर्ग अपने खेतों की मेड़ पर बैठा अठारहवीं सदी की खुरपियों से अपने पशुओं के लिए घास छोल रहा हो। हमे ऐसी भी आशंका है कि भारत में एक वर्ग वह होगा, जो केवल अपने हाथ की एक अंगुलि से बटन दबाकर रात का खाना अपनी मेज पर मँगवाएगा और फिर उसी हाथ की अंगुलि से बटन दबाकर जूठे बरतन साफ कराएगा। वह अपने शयनकक्ष में बैठकर उस अंगुलि से बटन दबाकर विदेशों में बैठे हुए अपने सगे-सम्बन्धियों या मित्रों से केवल बार्त्तालाप ही नहीं करेगा, वरन् उन्हें साकार रूप में अपने सम्मुख भी देख सकेगा। आज के मोबाइल फोन ने यह सम्भव भी कर दिखाया है। दूसरी ओर देश का वह वर्ग भी इक्कीसवीं सदी में जीवित होगा, जो अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बेबसी से भटक रहा होगा तथा दाल-रोटी, स्वच्छ जल, सिर पर एक छत, शरीर ढकने के लिए जरूरी वस्त्रों आदि के विषय में सोच-सोचकर ही 21वीं सदी में निवास करता रहेगा। 21वीं सदी का अति आधुनिक आदमी तीव्रतर गति से उड़नेवाले रॉकेटों पर सवार होकर चन्द्रमा की यात्रा करेगा और घण्टों या मिनटों में पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाकर वापस अपने घर लौट सकेगा। इसकी भी कल्पना कीजिए कि ऑफिस में बैठा हुआ लिपिक सुबह से शाम तक बैठकर टाइप मशीन पर एक-एक अक्षर अंकित करने पर विवश नहीं होगा, वरन् वह अपनी सम्पूर्ण रिपोर्टिंग कम्प्यूटर की याददाश्त (मेमोरी) को सौंप देगा और अंगुलि से बटन दबाते ही कम्प्यूटर सारा लेखा-जोखा प्रिण्टर द्वारा कागज पर अंकित कर देगा। दूसरी ओर देश में ऐसा वर्ग भी उपस्थित होगा, जिसे इन सुविधाओं की उपलब्धता का ज्ञान भी नहीं होगा। इक्कीसवीं सदी के इस प्रारम्भिक काल में मानस पटल पर उभरते ये दृश्य वास्तविक धरातल पर भी प्रकट होते हुए दिखलाई पड़ रहे हैं।

इक्कीसवीं सदी और हमारी तैयारी -वास्तव में जिन सम्पन्न देशों की नकल करके इक्कीसवीं सदी में जाने की बात की जा रही थी, उनके मुकाबले हमारी कितनी तैयारी है, इस पर न किसी ने सोचा और न कोई सोचना चाहता है। इक्कीसवीं सदी में जाने की जैसी हड़बड़ाहट हमें थी वैसी अन्य किसी देश को नहीं थी। जैसे कि यह देखा जाएगा कि कौन पहले आया और कौन बाद में और बाद में आनेवाले को उस सदी से बाहर कर दिया जाएगा। शायद हमें लग रहा है कि वह कोई 'सिमसिम' है, जो हमारा भाग्य खोल देगी। विकास की आशाएँ-फिर भी हम एक आशावादी देश के निवासी हैं। अपनी आशावादिता के आधार पर हम इस नवीन शताब्दी के विकास का कुछ-न-कुछ आकलन निम्नलिखित प्रकार से कर सकते हैं- 

(क) कृषि के क्षेत्र में- हमारा देश कृषिप्रधान देश है। बहुत अधिक प्रयासों के बाद भी हम अपनी कृषि को पूर्णतः वैज्ञानिक आधार नहीं दे पाए हैं। अभी भी बहुत कम किसान ऐसे हैं, जो कृषि के वैज्ञानिक तरीकों और साधनों का प्रयोग कर पाते हैं, किन्तु हम आशान्वित है कि इक्कीसवीं सदी के बीस-पच्चीस वर्ष व्यतीत होने के साथ हो वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी के साथ हम इतने समर्थ अवश्य हो जाएंगे कि अपने देश की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए हम खाद्यान्नों का भरपूर निर्यात भी कर सकें।

(ख) औद्योगिक क्षेत्र में हमारा देश औद्योगिक क्षेत्र में निरन्तर प्रगति कर रहा है। भारतीय तकनीक के साथ-साथ हम आयातित तकनीक का भी निरन्तर प्रयोग कर रहे है। हमारे देश में प्राकृतिक संसाधनों की भी कोई कमी नहीं है; कमी है तो उनके समुचित दोहन की। इस शताब्दी के मध्य भाग तक पहुंचने से पूर्व ही हम इन संसाधनों का भरपूर और समुचित उपयोग कर सकने की स्थिति में होगे।

उपसंहार - निश्चय ही नए और भारी उद्योगों की स्थापना के बाद कृषि के तरीकों में व्यापक परिवर्तन करके तथा लोगों के चिन्तन और उनकी मानसिकता में परिवर्तन लाकर हमारा देश ऐसी सुखद स्थितियों का निर्माण कर सकेगा कि यहाँ का प्रत्येक नागरिक समृद्ध और आरामदायक जीवन व्यतीत कर सके। हम यह विश्वास कर सकते हैं कि 2025 ई० तक हम विकास की ऐसी निर्णायक स्थिति में अवश्य पहुँच जाएंगे, जब हमारे देश का कोई भी बच्चा भूखा नहीं सो सकेगा, कोई तन ऐसा नहीं होगा, जो वस्त्रहीन रह जाए और कोई परिवार ऐसा नहीं होगा, जिसके सिर पर एक छत न हो।




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